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झुंझुनू,(8 मार्च 2024)। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाया जाता है । यह सिर्फ़ महिला दिवस नहीं है जैसा कि मीडिया हमें दिखाना चाहते है और उन अमीर, शिक्षित महिलाओं की सफलता की कहानियाँ सुनाते है । लेकिन असल में यह अन्तर्राष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस । इसका इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है । इसकी शुरुआत भी महिला मजदूरों ने ही की थी ।
अमेरिकी श्रमजीवी महिलाओं ने पुरुषों के समान वेतन, वोट देने का अधिकार, काम के घंटे कम करना आदि अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करते हुए जेल गई, यहा तक की शहीद भी हो गई। पूंजीवादी मीडिया जितना भी यह इतिहास भुलाने की कोशिश करे लेकिन आज भी महिलाएं लड़ाई से पीछे नहीं है ।
इस 8 मार्च को मानेसर स्थित जेएनएस ऑटो पार्ट्स बनाने वाली कंपनी के मजदूर हड़ताल पर चले गए और लगातार अनशन व धरने देते रहे थे, जिसमें अधिकांश महिला मजदूर हैं । 30 घंटे लगातार अनशन करने के बाद समझौता हो गया । और समझौता होने के बाद ही काम पर लौटी एक महिला मजदूर की तबीअत बिगड़ने से उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया । सिर्फ जेएनएस ही नहीं बावल औद्धोगिक क्षेत्र स्थित कीहिन फिन इंडिया प्लांट में नए वेतन समझौते पर विवाद के बीच 6 महिला कार्यकर्ताओं और 3 मजदूर साथियों को निलंबन के बाद महिला मजदूर पूरे जज्बे के साथ संघर्ष के मैदान में उतरीं । ये मजदूर महिलायें महिला दिवस के दिन फैक्ट्री गेट पर लड़ाई के मैदान में डटे रहते हुए उन शहीदों के साथ श्रमजीवी महिला दिवस के वास्तविक महत्त्व पर रोशनी डालली हैं ।
मेहनतकश महिला मजदूरों को सिर्फ आर्थिक शोषण ही झेलना पडता है ऐसा नहीं, फैक्ट्री के अन्दर व बाहर यौन शोषण एक भयावह स्तर पर पंहुच गया है । हर रोज देश के किसी न किसी हिस्सों में बलात्कार जैसे घटना घट रही है । देखा जाये तो ज्यादातर गरीब दलित या मेहनतकश घर की महिलाएं हवस का शिकार होती हैं । ऐसी मानसिकता पिछले सामंती समाज से ही हमारी समाज व्यवस्था में हावी है । उन्हें तमाम सामाजिक कुरीतियों का शिकार भी बनाया जाता है । कन्या भ्रूणहत्या से लेकर दहेज़ के लिए महिलाओं पर उत्पीड़न की घटना समाज के विकास के साथ साथ कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है । मतलब पुरानी समाजिक कुरीतियों को वर्तमान समाज भी ढो रहा है । हर रोज लड़कियों और महिलाओं के कपडों, रहन-सहन, रीति-रिवाजों के बहाने पीछे धकेलने के भरपूर कोशिश किया जा रहा है । शिक्षा के तहत जो वैज्ञानिक-तार्किक सोच बनता है उसे भी तोड़ने के लिए पारंपरिक शिक्षा के नाम पर पुराने, अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया जा रहे है । उसकी एक रूप है पितृसत्तात्मक सोच । पितृसत्तात्मक यानीं पुरुष-प्रधान समाज व्यवस्था इस गन्दी मानसिकता को जन्म देता है । इसके खिलाफ कुछ हद तक आवाज़ उठने से भी वह नाकाफी है । और तेज एवं संगठित विरोध की जरुरत है । क्योंकि इस व्यवस्था की खात्मा ही इन मानसिकता को खत्म कर पाएंगे ।
अब महिलाओं के एक और साहसिक भूमिका का बात करना ही होगा । वह है शाहीन बाग के महिलायें, जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून की आन्दोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । उसमें भी मेहनतकश महिलाओं की अच्छी खासी भागीदारी थी । हाल ही में चल रहे किसान आंदोलन में भी महिलाओं ने जिस तरह बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे है, यह भी महिलाओं की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका को ही दर्शाता है ।
एक चीज हमें समझना पड़ेगा कि महिला हो या पुरुष इन शोषण या पुरुष-प्रधान मानसिकता आधारित समाज से मुक्ति का रास्ता है मजदूर मेहनतकशों के संगठित लड़ाई । अगर हमें इससे मुक्ति चाहिए तो हमें अभी अभी अलग अलग जो विरोध के आवाज उठ रहे है उसे एकजुट करने की पहल उठाना पड़ेगा । आज हो या कल हम ज़रुर कामयाब होंगे ।